Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


वैश्या की लड

इसी प्रकार छै महीने और बीत गए। आज वही तिथि थी जिस दिन छाया और प्रमोद विवाह के पवित्र बंधन में बंधकर एक हुए थे। वह आज बड़ी प्रसन्‍न थी। सबेरे उठते ही उसने स्नान किया। एक गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी पहनी। जो कुछ आभूषण थे वह सब पहनकर, वह प्रमोद के उठने की प्रतीक्षा करने लगी। प्रमोद उठे और उठकर प्रतिदिन के नियम के अनुसार पिता के घर जाने लगे। छाया ने पहले तो उन्हें रोकना चाहा किंतु फिर कुछ सोचकर बोली-
आज जरा जल्दी लौटना।
'क्यों कोई विशेष काम है?' प्रमोद ने पूछा।
'आज अपने विवाह की वर्षगाँठ है।' कुछ प्रसन्‍नता और कुछ संकोच के साथ छाया ने उत्तर दिया।
'ऊँह, होगी! उपेक्षा से कहते हुए प्रमोद ने साइकिल उठाई और वे चल दिए।
छाया की आँखें डबडबा आईं। वह कातर दृष्टि से प्रमोद की ओर तब तक देखती रही जब तक वे आँखों से ओझल न हो गए। फिर भीतर आकर अन्यमनस्क भाव से घर के काम-काज में लग गई।

भोजन में आज उसने कई चीजें, जो प्रमोद को बहुत पसंद थीं, बनाईं; किंतु इधर भोजन का समय निकल जाने पर भी प्रमोद घर न लौटे तो वह चिंतित-सी हुई। उससे रहा न गया, उठकर वह प्रमोद के घर की तरफ चली। जहाँ न जाना चाहती थी वहीं गई, जो कुछ न करना चाहती थी, वही किया। घर के सामने पहुँचकर उसने देखा कि चन्द्रभूषण तख्त पर बैठे हैं। छाया को देखते ही वे कुछ स्तंभित से हुए; किंतु तुरंत ही आदर भाव प्रदर्शित करते हुए बोल उठे-आओ बेटी! कैसे आई हो; आओ बैठो।

छाया को ससुर से इस सद्व्यवहार की आशा न थी। वह उनके इस व्यवहार पर बड़ी प्रसन्‍न हुई। उसकी समझ में न आता था कि वह प्रमोद के विषय में कैसे पूछे। इसी पसोपेश में वह कुछ देर चुपचाप खड़ी रही। अंत में अपने सारे साहस समेटकर उसने पूछा, वे कहाँ हैं?
'किसे, प्रमोद को पूछती हो? वह तो इधर कल शाम से ही नहीं आया, पर हाँ, वह प्रायः मिस्टर अग्रवाल के यहाँ बैठा करता है। तुम ठहरो, मैं उसे बुलवाए देता हूँ,' चन्द्रभूषण ने उत्तर दिया।

उधर प्रमोद की माँ दरवाजे की आड़ से खड़ी-खड़ी छाया को निहार रही थी और मन-ही-मन सोच रही थी, कैसी चाँद-सी है; चाल-ढाल से भी कुलीन घर की बहू-बेटियों से कुछ अधिक ही जंचेगी, कम नहीं। बातचीत का ढंग कितना अच्छा है। स्वर कितना कोमल और मधुर है। चूल्हे में जाए वह समाज जिसके कारण मैं इस हीरे के टुकड़े को अपने घर में अपनी आँखों के सामने नहीं रख सकती ।
छाया फिर बोली, आप उन्हें न बुलवाकर मुझे ही वहाँ पहुँचवा दें?

अच्छी बात है, कहके चन्द्रभूषण अपने एक विश्वासपात्र नौकर के साथ छाया को मिस्टर अग्रवाल के घर भेजकर भीतर आए, पत्नी से कहा, 'वह लड़की जिसके साथ तुम्हारे बेटे ने ब्याह किया है आज आई थी।
पत्नी ने तिरस्कार के स्वर में कहा, वह बेचारी तो उपत के तुम्हारे दरवाजे तक आई और तुमसे इतना भी न बन पड़ा कि उसे घर के भीतर तक लिवा लाएँ?
चन्द्रभूषण सिर खुजाने लगे, वाह! मैंने तो तुम्हारे ही डर के मारे नहीं बुलाया; नहीं तो बुलाने को क्या हुआ था, अपनी ही तो बहू है।
फिर वे उठकर भीतर गए आलमारी से वही कंगन की जोड़ी, जो उस दिन उन्होंने खरीदी थी, लाकर पत्नी के सामने धर दी; बोले, लो, अब जब आवे तो उसे यह कंगन पहिना देना।
सुमित्रा ने चकित दृष्टि से एक बार कंगन और एक बार पति की ओर देखा, फिर प्यार किंतु तिरस्कार-स्वर में बोली, “मेरे लिए तो ऐसा कंगन कभी न लाए थे; अपनी बहू के लिए कैसे चुपचाप खरीद लाए, किसी को मालूम भी न होने पाया!
अरे तो ऐसे कंगनों के लिए कलाई भी तो वैसी ही चाहिए,' कहते-कहते चन्द्रभूषण बाहर चले गए। कंगन उठाकर सुमित्रा ने रख लिए और उसी दिन से फिर छाया की बाट जोहने लगी।

छाया ने मिस्टर अग्रवाल के घर पहुँचकर देखा, प्रमोद ताश के खेल में तल्लीन है। वहाँ पर कई युवक और युवतियाँ थीं। प्रमोद सबसे हँस-हँसकर बातें कर रहे थे। वहाँ पर मिस्टर अग्रवाल की कन्या शान्ता को छोड़कर छाया किसी को पहचानती न थी। शान्ता से छाया का परिचय भी प्रमोद ने ही करवाया था। शान्ता प्रमोद की बाल-सहेली थी और वे उसका बहुत आदर करते थे, किंतु आज प्रमोद का शान्ता के पास इस तरह बैठे रह जाना और छाया की उपेक्षा करना छाया को बड़ा कष्टकर जान पड़ा । वह सोचने लगी यहाँ न आती तो अच्छा होता।

वह बैठ न सकी । दस मिनट तक चुपचाप खड़ी देखती रही। अंत में शान्ता की नजर उस पर पड़ी। उसने उठकर छाया को आदर के साथ बैठाया । प्रमोद को छाया का इस प्रकार, उसकी खोज में ही सही, उसके मित्रों के घर तक पहुँचना अच्छा न लगा । उन्होंने वहीं सबके सामने उसे डाँट दिया। वे सिर से पैर तक जल उठे। कुछ देर वहाँ बैठकर फिर वे अपने घर आए। घर पहुँचकर उन्होंने छाया को खूब आड़े हाथों लिया। जो कुछ जी में आया, क्रोधावेश में कहते गए।

क्रोध में न मनुष्य में बुद्धि रह जाती है, न विवेक । प्रमोद ने जो कुछ कहना था वह भी कहा और जो कुछ न कहना था वह भी कहा । अंत में उन्होंने यहाँ तक कह डाला कि तुम अपने परिवार की चाल क्यों छोड़ सकोगी, गली-गली घूमोगी नहीं तो काम कैसे चलेगा? तुम तो मालूम होता है, वही करोगी जो तुम्हारी मां आज तक कर रही है।

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